WING OF FIR

INTRODUCTION

About this book

अगर आप एपीजे अब्दुल कलाम के बारे में और ज़्यादा जानना चाहते हैं, तो ये बुक आपके लिए है. वो एक मेहनती स्टूडेंट, समर्पित मिसाइल साइंटिस्ट और बहुत पसंद किये जाने वाले लीडर थे. ये कहानी आपको,तमिलनाडु में उनके बचपन से लेकर DRDO और ISRO में उनके इम्पोर्टेन्ट कंट्रीब्यूशन तक की जर्नी के बारे में बताएगी. इस बुक में आप एरोस्पेस के बारे में कई बातें जानेंगे. आप इंडिया के मिसाइल मैन कहे जाने वाले एपीजे से लाइफ के इम्पोर्टेन्ट लेसंस भी सीखेंगे.

 

यह बुक किसे पढनी चाहिये

स्टूडेंट्स, टीचर्स, जो साइंटिस्ट बनना चाहते हैं, जो

सिविल सर्वेट बनना चाहते हैं

आथर के बारे में

एपीजे अब्दुल कलाम मिसाइल साइंटिस्ट और भारत केके पूर्व प्रेजिडेंट हैं.उन्हें सब प्यार से मिसाइल मैन कहते हैं .


WING OF FIRE

मै एक गहरा कुंआ हूँ इस ज़मीन पर बेशुमार लड़के लड़कियों के लिए कि उनकी प्यास बुझाता रहूँ. उसकी बेपनाह रहमत उसी तरह ज़रें ज़रें पर बरसती है जैसे कुंवा सबकी प्यास बुझाता है. इतनी सी कहानी है मेरी, जैनुलब्दीन और आशिंअम्मा के बेटे की कहानी.उस लड़के की कहानी जो अखबारे बेचकर अपने भाई की मदद करता था. उस शागिर्द की कहानी जिसकी परवरिश शिव सुब्रयमानियम अय्यर और आना दोरायिसोलोमन ने की. उस विद्यार्थी की कहानी जिसे पेंडले मास्टर ने तालीम दी, एम्‌,जी.के. मेनन और प्रोफेसर साराभाई ने इंजीनियर की पहचान दी. जो नाकामियों और मुश्किलों में पलकर सायिन्स्दान बना और उस रहनुमा की कहानी जिसके साथ चलने वाले बेशुमार काबिल और हुनरमंद लोगों की टीम थी.

 

मेरी कहानी मेरे साथ ख़त्म हो जायेगी क्योंकि दुनियावी मायनों में मेरे पास कोई पूँजी नहीं है, मैंने कुछ हासिल नहीं किया, जमा नहीं किया, मेरे पास कुछ नहीं और कोई नहीं है मेरा ना बेटा, ना बेटी ना परिवार. मै दुसरो के लिए मिसाल नहीं बनना चाहता लेकिन शायद कुछ पढने वालो को प्रेणना मिले कि अंतिम सुख रूह और आत्मा की तस्कीन है, खुदा की रहमत है, उनकी वरासत है. मेरे परदादा अवुल, मेरे दादा फ़कीर और मेरे वालिद जेनालुब्दीन का खानदानी सिलसिला अब्दुल कलाम पर ख़त्म हो जाएगा लेकीन खुदा की रहमत कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि वो अमर है, लाफ़ानी है. मै शहर रामेश्द्रम के एक मिडिल क्लास तमिल खानदान में पैदा हुआ.मेरे अब्बा जेनाब्लुदीन के पास ना तालीम थी ना दौलत लेकिन इन मजबूरियों के बावजूद एक दानाई थी उनके पास।

         एक हौसला था और मेरी माँ जैसी मददगार थी आशींअम्मा और उनकी कई औलादों में एक मै भी था बुलंद कामिन माँ बाप का एक छोटा सा कदवाला मामूली शक्ल सूरत वाला लड़का. अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे हम जो कभी बीसवी सदी में बना था. काफी बड़ा और वसील मकान था, रामेश्वरम की मस्जिद स्ट्रीट में. मेरे अब्बा हर तरह के ऐशो आराम से टूर रहते थे मगर ज़रूरियत की तमाम चीज़े मुयस्सर थी. सच तो ये है कि मेरा बचपन बड़ा महफूज़ था दिमागी तौर पर भी और ज़ज्बाती तौर पर भी. मटीरियली और इमोशनली.रामेश्वर का मशहूर शिव मंदिर हमारे घर से सिर्फ दस मिनट की दूरी पर था. हमारे इलाके में ज्यादा आबादी मुसलमानों की थी फिर भी काफी हिन्दू घराने थे जो बड़े इत्तेफाक से पड़ोस में रहते थे. हमारे इलाके में एक बड़ी पुरानी मस्जिद थी जहाँ मेरे अब्बा मुझे हर शाम नमाज़ पढने के लिए ले जाया करते थे. रामेश्वरम मंदिर के बड़े पुरोहित बक्षी लक्ष्मण शाश्त्री मेरे अब्बा के पक्के दोस्त थे. अपने बचपन की आंकी हुई यादो में एक याद ये भी थी की अपने अपने रिवायती लिबासो में बेठे हुए वो दोनों कैसे रूहानी मसलो पर देर देर तक बाते करते रहते

  मेरे अब्बा मुश्किल से मुश्किल रूहानी मामलो को भी तमिल की आम जबान में बयान कर लिया करते थे. एक बार मुझसे कहा था” जब आफत आये तो आफत की वजह समझने की कोशिश करो, मुश्किल हमेशा खुद को परखने का मौका देती है'।

 मैंने हमेशा अपनी साईंस और टेक्नोलोजी में अब्बा के उसुलूँ पर चलने की कोशिश की है. मै इस बात पर यकीन रखता हूँ की हमसे ऊपर भी एक आला ताकत है, एक महान शक्ति है जो हमें मुसीबत, मायूसी और नाकामियों से निकाल कर सच्चाई के मुकाम तक पहुचाती है.

 

मै करीब छेह बरस का था जब अब्बा ने एक लकड़ी की कश्ती बनाने का फैसला किया जिसमे वो यात्रियों को रामेश्वरम से धनुषकोटि का दौरा करा सके. ले जाए और वापस ले आये. वे समुन्दर के साहिल पर लकडिया बिछाकर कश्ती का काम किया करते थे एक और हमारे रिश्तेदार के साथ अहमद जलालुदीन, बाद में उनका निकाह मेरी आपा जोहरा के साथ हुआ. अहमद जलालुदीन हालाँकि मुझसे पंद्रह साल बड़े थे फिर भी हमारी दोस्ती आपस में जम गयी थी. हम दोनों ही शाम लम्बी सैर पर निकल जाया करते थे. मस्जिद गली से निकलकर हमारा पहला पड़ाव शिव मंदिर हुआ करता था, जिसके गिर्द हम उतनी ही श्रधा से परिकर्मा करते थे जितनी श्रधा से बाहर से आये हुए यात्री. जलालुदीन ज्यादा पढ़ लिख नहीं सके उनके घर की हालत की वजह से लेकिन मै जिस ज़माने की बात कर रहा हूँ, उन दिनों हमारे इलाके में सिर्फ एक वही शख्स था जो अंग्रेजी लिखना जानता था.

      जलालुदीन हमेशा तालीमयाफ्ता और पढ़े लिखे लोगो के बारे में बाते करते थे. और एक शख्स जिसने बचपन में मुझे बहुत मुद्दफिक किया वो मेरा कजिन था, मेरा चचेरा भाई शमसुदीन और उसके पास रामेश्वरम में अखबारों का ठेका था और सब काम अकेले ही किया करता था. हर सुबह अखबार रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से पहुचता था. सन 1939 में दूसरी आलमगीर जंग शुरू हुई, द सेकंड वर्ड वार, उस वक्त मै आठ साल का था. हिन्दुस्तान को एल्तियादी फौज के साथ शामिल होना पड़ा और एक इमरजेंसी जैसे हालात पैदा हो गए थे. सिर्फ पहली दुर्घटना ये हुई कि रामेश्वरम स्टेशन पर ट्रेन का रुकना केंसिल कर दिया गया और अखबारों का गठ्ठा अब रामेश्वरम और धनुषकोटी के बीच से गुज़रनेवाली सड़क पर चलती ट्रेन से फेंक दिया जाता.शमसुदीन को मजबूरन एक मददगार रखना पड़ा जो अखबारों के गठ्ढे सड़क से जमा कर सके, वो मौका मुझे मिला और शमसुदीन मेरी पहली आमदनी की वजह बना। 



 Remaining article coming soon


COMPLITED

फाइनली अगर आप इस समरी के एन्ड तक पहुंच

गए है । तो  बहुत ही कम लोग होते है जो नॉलेज के ऊपर टाइम इन्वेस्ट

करते है वार्ना आप कही और भी तो टाइम वेस्ट कर सकते थे.

Thank you🙏🙏



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Thank you